आधुनिकता की रेस में टैटुओं से हार रहा पारपंरिक ‘गोदना’, सुंदरता के साथ शरीर को स्वस्थ रखने का भी जरिया था पारंपरिक गोदना



विंध्येश्वरी सिंह की विशेष खबर



खानपुर। गोदना महिलाओं के श्रृंगार सज्जा का एक परम्परागत तरीका है। प्राचीन काल से महिलाएं गोदने के माध्यम से अपने शरीर को न सिर्फ सुंदर व मनमोहक बनाती थीं बल्कि उसके माध्यम से अपनी एक पहचान कायम करती थीं। लेकिन अब गोदने की वो पुरानी कलाकारियां आधुनिकता की दौड़ में पिछड़ने लगी हैं। कारण है गोदना गोदने के लिए पारंपरिक तरीकों के स्थान पर आधुनिक मशीनों का प्रयोग होना। अब इन पारंपरिक गोदनों का स्थान आधुनिक टैटुओं और मेहंदी चित्रकारी ने ले लिया है। जिसके चलते भारत की ये प्राचीन कलाकारी अब विलुप्तप्राय हो रही है। शरीर के हिस्सों को सुन्दर बनाने की भावना के साथ ही लोक संस्कृति में एक उत्सव के साथ गीत संगीत से परिपूर्ण गोदना महिलाओं के जीवन का एक अभिन्न हिस्सा हुआ करता था। काफी पहले क्षेत्र के बेलहरी, अमेहता, नायकडीह, खानपुर, ततवां, पकड़िया आदि गांवो में दर्जनों परिवार की महिलायें और बुजुर्ग पुरुष पहले अपने इस पुश्तैनी काम में लगे हुए थे। लेकिन आज के समय में केड़वा गांव की सिर्फ दो बुजुर्ग महिलायें हसीबुन्निशां और खुशबुन्निशां ही इस गोदने का काम करके क्षेत्र की परंपराओं को जिंदा रखने का काम कर रही हैं। ग्रामीण इलाकों से निकलकर यह गोदना कला अब नगरों और शहरों में तो पहुंच गया है और स्थिति ये है कि महिलाओं के साथ ही पुरूष भी अब अपने शरीर के विभिन्न हिस्सों पर विभिन्न आकृतियां बनवाते हैं लेकिन अफसोस ये है कि वो चित्र गोदने के पारंपरिक तरीकों की बजाय टैटुओं के रूप में होते हैं। हालांकि आदिवासी बनवासी समाज में अभी भी गोदना प्रथा चलन में है। राष्ट्रपति पुरस्कार प्राप्त अध्यापिका कमला सिंह कहती हैं कि गोदना हिन्दू औरतों के लिए श्रृंगार के साथ सौभाग्य और शुद्धता का प्रतीक भी माना जाता था। गोदने को गोदने के पूर्व नसों में प्रवाहित की जाने वाली दवाएं हमारे शरीर को गंभीर बीमारियों से आजीवन दूर रखती हैं। इस तरह से गोदना प्राकृतिक चिकित्सा की प्रमुख पद्धति एक्यूपंचर की तरह है जो हमारी परंपरा में संस्कृति और सेहत का अनोखा संगम है। वहीं चर्म रोग विशेषज्ञ डॉ एके गुप्ता कहते है कि पूर्व में प्राकृतिक तरीकों से गोदने के लिए बनाई गई स्याहियां शरीर के लिए उपयुक्त होते थे लेकिन आजकल के टैटुओं में प्रयोग होने वाली रासायनिक स्याही हमारे शरीर व चमड़ी के लिए बेहद खतरनाक साबित होती है। बताया कि पहले बालोर (सेम) का रस, महुए का तेल, पीपल का दूध और नीम के तेल से जलने वाले दिए की राख से गोदने का रंग तैयार किया जाता था और फिर बबूल के कांटे या सुई से चुभो कर शरीर पर कोई चित्र उकेरा जाता था। जो कुछ तकलीफदेह तो होता था लेकिन शरीर के लिए लाभप्रद होता था। बताया कि करीब 1300 साल पुरानी यह लोककला लगभग दुनिया के हर देश और हर जाति में पायी जाती है। बरसात के महीने को छोड़कर पूरे साल भर गोदने गोदे जाते थे। गोदना की माहिर हंसीबुन्निशां कहती है कि आज के समय में स्थिति ये है कि हमें इस धूप में भी सिर पर टोकरी में गोदने का सामान लेकर पैदल ही गांव-गांव एक घर से दूसरे घर तक घूमना पड़ता है तब जाकर कुछ काम मिल पाता है और दिनभर काम करने पर बामुश्किल 60-70 रुपये ही मिल पाते हैं। बताया कि गोदना हिंदुओ में हर उम्र की महिलायें बनवाती थीं लेकिन मुस्लिम औरतें इससे आज भी परहेज करती हैं। अफसोस जताते हुए कहा कि आज की मशीनों ने न सिर्फ हमारी कमाई खत्म कर दी है बल्कि लोगों के सेहत से भी खिलवाड़ कर रही है। इसके बावजूद लोग उन मशीनों के पीछे भागकर ही अपना ही नुकसान कर रहे हैं। सरकार से मांग किया कि वो इस परंपरा को जीवित रखने की दिशा में कोई ठोस कदम उठाए।



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