आधुनिकता की अंधी रेस में लुप्त हो रही बसंत पंचमी से शुरू होने वाली फगुनहट परंपरा, मोबाइल ने छीन लिया युवाओं का उत्साह





खानपुर। ऋतु परिवर्तन काल में मनाई जाने वाली बसंत पंचमी पर सरस्वती पूजन की परंपरा है। इस दिन से होलिकोत्सव की तैयारी भी शुरू हो जाती है। होलिका स्थल पर विधि विधान पूर्वक होलिका स्थापना कर अगले 40 दिनों तक होलिका दहन स्थल पर पूजा पाठ, दीप प्रज्ज्वलन, संगीतमय प्रभातफेरी जैसे कार्यक्रम आयोजित किये जाते है। पिछले कुछ साल से गांवों में बसंत पंचमी पर अरड़ का पेड़ गाड़ने की परंपरा लुप्त होने लगी है। बीते बसंत पंचमी पर कुछ गांवों में बुजुर्गो में होलिका स्थल पर आम की सूखी लकड़ी रख रोली रक्षा अक्षत पुष्प से पूजन किया। ज्यादातर जगहों पर होलिका दहन से कुछ दिनों पूर्व लकड़ियां एकत्रित कर होली जलाई जाती है। पहले बसंत पंचमी के दिन बच्चे युवा अरड़ का पेड़ लाकर विधिवत पूजा अर्चना करके होलिका दहन स्थल पर गाड़ते थे। इसके बाद होली तक प्रतिदिन किसी न किसी घर से लकड़ी व उपले लाकर होलिका में डाली जाती थी। लेकिन अब टीवी, मोबाइल में व्यस्त युवा पीढ़ी इन परंपराओं से दूर होती जा रही है। ढोलक, झाल की धुन पर फाग गीत कम सुनाई देते है। बसंत पंचमी से फाग गीतों का सिलसिला भी शुरू हो जाता था। फाल्गुन माह में तो फाग का उत्साह अमीर हो या गरीब मजदूर तबके के लोग, सभी शाम को ढोलक बजाने व फाग गाने में मस्त हो जाते थे। लेकिन अब वैसा उत्साह कहीं दिखाई नहीं देता। रोगनाशक अरड़ का पेड़ की जड़ से लेकर तना, छाल, पत्ते व फल व तेल का इस्तेमाल आयुर्वेदिक औषधि के रूप में किया जाता है। ऋतु परिवर्तन पर कीटाणुओं के संक्रमित बीमारियां फैलने का खतरा होता है। अरड़ पेड़ के आसपास कीटाणु नहीं फटकते, इसीलिए होलिका दहन पर भी पूजा कर रोग मुक्त होने की कामना की जाती है।



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