जब भुड़कुड़ा के सिद्धपीठ में पहुंचे अवधूत बाबा कीनाराम की भीखादास से हुई थी चमत्कारी मुलाकात, पढ़ें -
अशोक कुशवाहा
गाजीपुर। गाजीपुर-आजमगढ़ की सीमा के पास जखनियां का भुड़कुड़ा सिद्धपीठ जनपद ही नहीं, बल्कि पूरे देश में तपोभूमि के रुप में जाना जाता है। सिद्धपीठ की गद्दी पर वैसे तो कई संत आसीन हुए, परन्तु तीसरे संत भीखादास की चर्चा लोगों की जुबान पर आज भी है। दूसरे संत गुलाल साहब के ब्रह्मलीन होने के पश्चात 1760 में संत भीखादास आसीन हुए। उनका जन्म आजमगढ़ के खानपुर गोहना निवासी एक चतुर्वेदी ब्राह्मण परिवार में हुआ। बाल अवस्था में ही उनमें वैराग्य भाव जागृत हो गया था। उनके इसी भाव को देखकर माता-पिता विवाह करने की तैयारी करने लगे। जिसकी जानकारी होने पर वो चुपके से घर से बाहर निकल गये। भुड़कुड़ा पहुंचकर गुलाल साहब के शिष्य बन गये। फिर 1759 में गुलाल सिंह के ब्रह्मलीन होने के बाद 26 वर्ष की उम्र में गद्दी पर पीठासीन हुए। काफी कम उम्र में उनके यश की पताका चारों तरफ फहराने लगी। भीखादास की आध्यात्मिक शोहरत सुनकर उनकी परीक्षा लेने के लिए देश भर में विख्यात अवधूत रामगढ़ के संत कीनाराम मायारूपी सिंह पर सवार होकर भुड़कुड़ा की ओर चले। यह बात भीखादास को मालूम हो गई कि कोई संत मिलने के लिए आ रहा है तो वो जिस दीवार पर बैठे थे, उसी दीवार पर सवार होकर वो संत का स्वागत करने के लिए उड़ चले। दीवार के फटने के निशान आज भी वहां पर मौजूद हैं। स्वागत के लिए पहुंचने पर उन्होंने अवधूत से कहा जलपान क्या करेंगे। जिस पर उन्होंने कहा कि हमें दुधुवा (शराब) चाहिए। जिस पर भीखादास बोले कि हमारे यहां शराब नहीं चलता। जिसके बाद कीनाराम बोले कि झूठ क्यों बोल रहे हैं, आपके यहां के सभी कुएं शराब से भरे हैं। भीखादास ने पानी लाने के लिए सेवक को भेजा तो कुएं मे शराब मिली। वापस आकर सेवक ने बताया कि पूरे कुएं शराब से भरे हैं। जिसके बाद भीखादास ने सेवक से कहा जाओ, फिर देखो, वहां दुधुवा नहीं बल्कि जल भरा है। इसके बाद फिर से कुएं में जल हो गया। ये देखकर अवधूत ने दुधुवा के बदले जल व दूध पिया और कहा कि भीखे, तुमने हमारे पेय पदार्थ को दूध व पानी बना दिया। तुम्हारे यहां 8 सिद्ध गद्दियां होंगी। इसके बाद गद्दी समाप्त हो जायेगी। इसके बाद जो गद्दी पर बैठेगा वो जलकर नष्ट हो जायेगा। जिस पर भीखादास बोले कि हमें 8 ही सिद्ध गद्दी चाहिए, जिससे देश का कल्याण हो। बाबा कीनाराम ने वापस जाते समय वाराणसी श्मशान घाट से मुर्दा फाड़कर 30 कांवर भीखादास के पास उपहार भेजा। कांवर आने पर भीखादास ने पूछा कि यह क्या है तो सेवक ने बताया कि कीनाराम ने आप ने लिए उपहार भेजा है। भीखादास ने अपनी छड़ी से स्पर्श करके कहा कि कीनाराम को हमारे तरफ से यह उपहार दे देना। सेवक यह देखकर आश्चर्य चकित रह गया। भीखादास के दो शिष्य थे गोविन्द साहब व चतुर्भुज साहब। गोविन्द साहब आजमगढ़ चले गये, जहां आज भी मेला लगता है। वहीं चतुर्भुज साहब भीखादास के ब्रह्मलीन होने के बाद 1772 से 1818 तक पीठासीन रहे। 1819 से 1949 तक संत नरसिंह दास, 1850 से 1879 तक संत कुमार दास, 1880 से 1892 तक संत रामहित दास, 1893 से 1924 तक संत जयनारायण उर्फ भोले दास, 1925 से 1969 तक रामबरनदास, इसके बाद रामाश्रय दास और वर्तमान में शत्रुघ्न दास आसीन हैं।