द्विअर्थी गानों की बलि चढ़ रहे पारंपरिक फागुन गीत, सिर झुकाकर गुजरने को विवश हैं युवतियां व महिलाएं





खानपुर। फगुआ का मौसम आते ही दुकानों व वाहनों में अब अश्लील व द्विअर्थी होली गीत बजने लगे हैं। इन होली गीतों के बोल ऐसे होते हैं कि राह चलने वाली युवतियां व महिलाएं सिर झुकाकर अनसुना करना ही बेहतर समझतीं हैं। पूर्व की तरह अब न तो पारंपरिक होली गीत गाए जाते हैं और न ही पारंपरिक कबीरा, जोगीरा, चैता, चौताल व होरी गीतों के बोल ही सुनाई देते हैं। होली गीतों में बाल-बुजुर्ग, स्त्री-पुरुष सबको आनंद आता है। श्रृंगार रस व प्रेम मनुहार वाले गाने अब विलुप्ति के कगार पर पहुंच गए हैं। बसंत पंचमी को होलिका पूजन कर फाग गायन प्रारंभ होने की परंपरा रही है। बसंत पंचमी के अगले दिन से ही होली या फाग गीतों का शुभारंभ कबीरा व जोगीरा से होता है। पुरुष ’आईल बसंती बहार बोलो सारा रारा’ तो महिलाएं बसंत के मौसम में केदली खिलने की सूचना ’कवने बनवां मोरवा बोले सखी, कवने बनवां कोयलिया बोले हो’ गाकर देती हैं। चार ताल में निबद्ध चौताल ’यशोदा तेरे कुंवर कंहाई, करें लरिकाई’ के गायन में ऊर्जा, अनुभव एवं स्वर की एक साथ संयोजन बरसती है। भारतीय पारंपरिक गीत प्रत्येक मास, ऋतु, बेला एवं पर्व के लिए अलग-अलग हैं। फाल्गुन मास में बारहमासा गीत तो चैत मास में चैता गीतों में प्रणय निवेदन, विरह गीत एवं हास परिहास को आधार बनाया गया है। बेहद लोकप्रिय गीत ’होरी खेले रघुबीरा अवध में’ आज के दौर के फूहड़ गीतों से अधिक कर्णप्रिय है। द्विगुण और चौगुण में चौताल गाए जाने की परंपरा अब चंद गायकों तक सिमट गई है। चौताल में भाव प्रधान और कुप्रथा पर प्रहार करने वाले गीतों की प्रधानता है तो फाल्गुन मास के बीतते ही चैत मास में ’रोज रोज बोले कोयलिया संझवां बिहनवां, आज काहें बोले आधी रतिया हो रामा’ सरीखे वेदना समेटे गीत गाए जाते हैं। भोजपुरी के प्रसिद्ध कवि एवं लेखक प्रेमशंकर मिश्रा कहते है कि पौराणिक, धार्मिक, लोक मान्यताओं एवं लोक कथानकों व प्रतीकों को गीत में निबद्ध कर गाने की पारंपरिक गीतों को सीखने युवा और सिखाने को बुजुर्ग आगे आएं। लोक परंपराओं और इनसे जुड़े विभिन्न रस और भाव आधारित गीतों को प्रोत्साहित किए जाने की आवश्यकता है।



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