बसंती पंचमी से फागुन चढ़ते ही फिजाओं में गूंजने लगे होलियारी गीत, फगुनहटा बना माहौल





खानपुर। आगामी रंगों के त्योहार होली की खुमारी और होलियाना अंदाज लोगों के मन मस्तिष्क में मस्ती संग घुलने लगा है। ग्रामीण इलाकों में बसंत पंचमी को होलिका स्थापना के साथ ही धीरे-धीरे पूरे क्षेत्र में होलियाना माहौल बनना शुरू हो जाता है। प्रकृति परिवर्तन के साथ प्यार और पकवानों से भरा यह त्योहार हर आयु, वर्ग, जाति व धर्म के लोगों में लोकप्रिय है। फगुआ के गीतों में हंसी-ठिठोली, नोंक-झोंक के साथ चुहलबाजी करने का सबसे प्रिय पर्व माना गया है। ग्रामीण अंचल में फगुआरी गीतों के साथ संगीत और नृत्य का अद्भुत संगम देखने को मिलता है। जिसमें हर व्यक्ति में मस्ती और मनोरंजन का माहौल घुला होता है। गांव के सार्वजनिक स्थलों पर ढोलक, झाल के साथ यह चौपाल शाम ढलते ही परवान चढ़ती है और देर रात तक जवान रहती है। इस संगीतमय चौपाल में बुजुर्गों की टोली राधा कृष्ण और सियाराम के भक्ति रस में डूबती है तो युवाओं की टोली श्रृंगार और प्रेमरस में झूमती है। होली के चौपालों में जब पारंपरिक फगुआ के गीत गूंजते हैं तो हर स्त्री पुरुष होली की मस्ती में सराबोर हो उठते हैं। दो दशक पूर्व तक तो होली का गायन बसंत पंचमी से ही प्रारंभ हो जाता था और पूरे एक महीने तक चलता था। उन दिनों गांव के प्रत्येक परिवार में होली की टोली पहुंचती थी और जमकर चौपाल लगता था। इस चौपाल ने गांव में आपसी प्रेम, सौहार्द और भाईचारा बना रखा था। इस चौपाल के कारण ही नई पीढ़ी तक होली गायन का पारंपरिक गीत और संगीत पहुंचता आया है। किंतु अब फगुआ चौपालों में सिर्फ खानापूर्ति ही रह गई है। खुद गाने बजाने के बजाय फिल्मी और कैसेट्स के गाने बजाए जाने लगे है। अगर यही हाल रहा तो होली के पारंपरिक गीत-संगीत लुप्त होकर रह जाएंगे। अब युवाओं में होली गीत को लेकर पहले जैसा उत्साह उमंग नहीं रहा। भोजपुरी के आधुनिक फूहड़ और अश्लील होली गीत पारंपरिक लोक गीतों को नुकसान पहुंचा रहे हैं। होली के माधुर्य और रसभरी पारंपरिक गीतों को पुनः स्थापित करने की कोशिश की जा रही है ताकि पर्वों की वास्तविक संस्कृति बनी रहे।



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