सावन में अब नहीं सुनाई देती कजरी की मधुर तान, आधुनिकता के चोले में बिसरती जा रही है ग्रामीण संस्कृति



बिंदेश्वरी सिंह की खास खबर



खानपुर। जब वर्षा ऋतु में बरसात की बूंदे तन बदन पर पड़ती हैं तो सबके मन से एक भाव निकलता है। जिसे हर स्त्री पुरुष और युवा कजरी, मल्हार, ठुमरी, मेघा आदि गीत संगीत के माध्यम से प्रकट करते है। आधुनिकता और कानफोड़़ू डीजे संगीत के शोर में कजरी का मधुर माधुर्य आज दब कर रह गया है। सावन के महीने में रिमझिम फुहारों के बीच पहले गांव की महिलाएं झूला लगाती और गाती थी। कजरी के माध्यम से मनुहार, प्यार, हंसी ठिठोली और श्रृंगार के साथ विरह रस की सुगंध बिखेरती हैं, तब पूरा वातावरण खुशनुमा हो जाता था। उस दृश्य के बारे में केवल कल्पना मात्र से ही मन मंत्रमुग्ध हो जाता है। आषाढ़ माह आते ही युवतियां महिलाएं झूले डालकर कजरी गाना शुरू कर देती हैं। धान के खेतों में रोपनी से लेकर घरों में तीज त्योहार मनाते हुए महिलाएं कजरी के गीतों से परंपराओं को जीवंत बनाती थी। राधा-कृष्ण की हंसी ठिठोली, राम-सीता के प्रेम प्रसंग, शिव-पार्वती के मनुहार से लेकर देवर भाभी व ननद भौजाई के नोंक झोंक को गीतों में पिरोकर कजरी को और रसदार बना देती हैं। कवि विजय यादव कहते हैं कि फगुआ में पुरुष अपने महिला साथी की मनुहार करते है तो कजरी में महिलाएं अपने पुरुष साथी की मनुहार करती हैं। राधा झूलै कदम की डाल, पिया मेहंदी लीया द मोतीझील से...जाइके साइकिल से ना, बरसन लागी बदरिया झूम झूम के बोलन लागी कोयलिया घूम घूम के, बरसन लागी सावन बूंदिया राजा, तोरे बिन लागे ना मोरा जिया और प्रेम की पतिया मीठी मीठी दुखवा अपना मैं ना कहूंगी, देखन तड़पत देख मरुंगी जैसे गीत धान की रोपाई से लेकर तीज व सावन में महिलाएं इस गीत को गाती है। एक समय में कजरी की धुन को शास्त्रीय संगीत के घरानों ने इसे अपना कर वाहवाही लूटी थी। कजरी मात्र एक लोकगायन नहीं बल्कि यह एक गायन की ऐसी शैली है जो देशभक्ति, सामाजिक एकता, परम्परा, वीर रस, श्रृंगार, विरह वेदना का अनोखा संगम है। एक जमाना था जब सावन का महीना शुरू होते ही कजरी की धुन सुनाई पड़ने लगती थी, जिसे सुनने आवारा बादल भी रुक जाते थे और ना चाहते हुए भी विरह वेदना से व्यथित काले कजरारे नैनो रूपी बादल से बारिश के रूप में आंसू टपकाने लगते थे। कजरी में एक तरफ जहां विरह वेदना है तो दूसरी तरह कजरी में श्रृंगार, हास्य और वीर रस भी है। नयी पीढ़ी का कजरी से दूर होना एक सांस्कृतिक परंपरा से दूर होना है।



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