निजी अस्पतालों में 11 साल तक भटका, टीबी ठीक करने के लिए जेवर बेचे और खेत तक गिरवी रखे, अब सरकारी अस्पताल ने किया पूरी तरह से स्वस्थ





गोरखपुर। क्षय रोग यानि टीबी ने पिपराइच ब्लॉक के मटिहनिया सुमाली गांव निवासी रामगनेश को बर्बादी के कगार पर खड़ा कर दिया था। नौ वर्षों तक इस बीमारी से लड़ते हुए निजी अस्पतालों में लाखों रुपये खर्च हो गये। खेत तक बंधक रखना पड़ा। मास ट्रग रेसिस्टेंट टीबी से ग्रसित रामगनेश को ग्यारह साल बाद टीबी से मुक्ति तब मिली जब उन्होंने वर्ष 2017 में सरकारी अस्पताल से टीबी का इलाज शुरू करवाया। वर्ष 2019 में उन्हें टीबी से मुक्त घोषित कर दिया गया और अब वह पूरी तरह से स्वस्थ हैं। रामगनेश बताते हैं कि वर्ष 2008 में उन्हें बुखार और हल्की खांसी की दिक्कत शुरू हुई। बुखार भोर में चार बजे चढ़ता था और सुबह तक ठीक हो जाता था। पहले तो बुखार की दवा अपने मन से दुकान से लेकर खाने लगे लेकिन जब कोई राहत नहीं मिली तो उन्होंने निजी चिकित्सक को दिखाया। जांच में टीबी की पुष्टि हुई और उनकी नौ माह दवा चली। कुछ समय तक राहत मिल गयी लेकिन आठ दिन बाद फिर से बुखार आने लगा। इसके बाद आधा दर्जन निजी चिकित्सकों के पास गए और लगभग आठ साल तक लाखों रुपये खर्चकर इलाज करवाते रहे लेकिन दिक्कत जस की तस बनी रही। जेवर बेचने पड़े और खेत भी बंधक रखना पड़ा। आखिरकार वर्ष 2017 में एक निजी चिकित्सक ने ही उन्हें बताया कि उन्हें एमडीआर टीबी है और उनके इलाज में पांच लाख रुपये लगेंगे। रामगनेश ने हाथ खड़े कर दिये और बताया कि अब वह इलाज नहीं करा पाएंगे। यह सुन कर चिकित्सक ने उन्हें सलाह दी कि वह बीआरडी मेडिकल कॉलेज जाएं और वहां से इलाज शुरू कराएं। वहां से इलाज निःशुल्क होगा। रामगनेश का कहना है कि मेडिकल कॉलेज से दवा देकर उन्हें पिपराइच सीएचसी जाने को कहा गया, जहां चिकित्सक डॉ पी गोविंद की देखरेख में एसटीएस संजय सिन्हा की मदद से उनकी दवा शुरू हुई। एसटीएस ने उन्हें भरोसा दिया कि उनकी टीबी पूरी तरह से ठीक हो जाएगी, बशर्ते एक भी दिन दवा न बंद हो। गांव की आशा कार्यकर्ता नियमित तौर पर उनके यहां दवा पहुंचाती थीं। एसटीएस संजय भी हालचाल लेते थे। दो साल तक लगातार दवा चली। रामगनेश का कहना है कि इलाज के दौरान कुछ खाने पीने की इच्छा नहीं होती थी। दवाएं अच्छी नहीं लगती थीं लेकिन फिर भी दवा कभी बंद नहीं की। वर्ष 2019 में वह ठीक हो गये। उन्हें बैंक खाते के जरिये 8000 रुपये की मदद भी मिली। उन्हें बताया गया कि इस पैसे से दूध, अंडा, मीट, सोयाबीन, दाल आदि पोषक खाद्य पदार्थों का सेवन करना है। रामगनेश की पत्नी बसंती देवी का कहना है कि अगर उन्हें पहले जानकारी रही होती तो वह लोग सरकारी अस्पताल से ही इलाज करवाते। टीबी का इलाज सरकारी दवाओं से हो जाता है, इसलिए लोगों को निजी अस्पतालों में भटकने से बचना होगा। एसटीएस संजय सिन्हा का कहना है कि 22 मई 2017 से पिपराइच सीएचसी से रामगनेश की दवा शुरू हुई थी और 26 जून 2019 को वह स्वस्थ घोषित किये गये। राष्ट्रीय क्षय उन्मूलन कार्यक्रम के जिला कार्यक्रम समन्वयक धर्मवीर सिंह का कहना है कि टीबी के ज्यादर एमडीआर रोगी सरकारी दवाओं से ठीक हो रहे हैं। एमडीआर टीबी का निजी अस्पतालों में इलाज काफी महंगा है। पब्लिक प्राइवेट मिक्स समन्वयक अभय नारायण मिश्र का कहना है कि वर्ष 2017 से अब तक ड्रग रेसिस्टेंट टीबी के 705 मरीज इलाज के बाद पूरी तरह से ठीक हो चुके हैं। एमडीआर टीबी का इलाज निजी क्षेत्र में लाखों रुपये तक का है लेकिन सरकारी अस्पताल में सुविधा निःशुल्क है। जिला क्षय रोग अधिकारी डॉ गणेश प्रसाद यादव का कहना है कि अगर दो सप्ताह तक लगातार खांसी आए, तेजी से वजन गिर रहा हो, रात में पसीने के साथ बुखार आए, बलगम में खून आए और भूख न लगे तो यह टीबी का लक्षण हो सकता है। समय रहते टीबी की पहचान न होने, नियमित दवा का सेवन नियत समय तक न करने और सही दवा न चलने से टीबी एमडीआर का रूप ले लेती है जिसका इलाज जटिल व महंगा है। लक्षण दिखते ही टीबी की जांच करवा कर इलाज करानी चाहिए। सरकारी अस्पतालों में टीबी की जांच व इलाज निःशुल्क है। अगर किसी को टीबी की जांच, इलाज व दवा में परेशानी हो रही हो या अन्य कोई टीबी संबंधित मदद चाहता हो 8299807923 मोबाइल नंबर पर फोन कर सकता है।



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