पाश्चात्य संस्कृति के पीछे भागने में भारत की परंपराएं भूल रहीं देशी महिलाएं, सावन में भी नहीं दिख रहे पारंपरिक झूले संग कजरी





सिधौना। पवित्र व पावन मास के रूप में मनाए जाने वाले सावन माह की परंपराएं आधुनिकता के दौर में गुम होती जा रही हैं। महिलाओं की टोली झूला झूलते हुए कजरी गीत गाने की परंपरा को भूलती जा रहीं हैं तो मान मनुहार संग हंसी ठिठोली और श्रृंगार रस से परिपूर्ण कजरी की परंपरा टीवी, मोबाइल और डीजे के कर्कश संगीत में अपनी माधुर्य खोता जा रहा है। जीवन को प्राकृतिक स्पर्श से जोड़ने वाली कजरी गीत महिलाएं स्वयं रचती है और गीतों के माध्यम से राधा कृष्ण, राम सीता एवं शिव पार्वती के प्रेमरस को दर्शाती हैं। सावन महीना शुरू होते ही कजरी की धुन वातावरण में छा जाता था। प्राकृतिक मौसम और मनोभावों को समेटते हुए महिलाओं ने कजरी धुन को इतना सशक्त बना दिया की इस धुन को सुनते ही मन मस्तिष्क पर श्रावणी बहार छाने लगती है। आज समाज जिस तरह से पाश्चात्य संस्कृति की तरफ भाग रहा है, उससे अपनी संस्कृति और पहचान को भूलता जा रहा है। दो दशक पहले सावन मास शुरू होते ही रिमझिम फुहारों के बीच महिलायें रात्रि के समय झूला झूलते समय अपनी सुरीली आवाज से जब कजरी का गायन करती थी तो पूरा वातावरण खुशनुमा हो जाता था। महिलायें अपने कजरी लोक गीत के माध्यम से पिया के प्रति जो संवेदना ‘वीराना रहे चाहे जाएं हो सवनवा में ना जाबे न नदी‘ और ‘पिया मेहंदी मंगा द मोती झील से जा के साइकिल से ना’ व्यक्त करती थीं। साथ ही विरह रस की अभिव्यक्ति से लेकर शिव पार्वती के श्रृंगार तक की दास्तां कजरी के माध्यम से प्रस्तुत करती थीं कि श्रोताओं के मन मुग्ध हो जाते थे। आज ग्रामीण अंचलों में भी न तो पेड़ों पर झूले दिखाई पड़ते हैं, न ही कजरी के गीत सुनाई पड़ते हैं। राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित सिधौना की शिक्षिका कमला देवी कहतीं है कि सामाजिक विखंडन एवं एकल परिवारों ने कई लोक परंपराओं को विलुप्ति के कगार पर लाकर खड़ा कर दिया है। लोक परंपराओं के गुम होने से महिलाओं की रचनाशीलता में भी भारी कमी आई है।



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