गाजीपुर : खतरे में भोजपुरी की प्रमुख ‘लोरिकायन’ लोकगाथा, फिल्मी चकाचौंध से खतरे में आई ये विधा





गाजीपुर। भोजपुरी क्षेत्र की प्रमुख लोकगाथा ‘लोरिकायन’ का अस्तित्व आज खतरे में है। दिन प्रतिदिन बढ़ती फिल्मी चकाचौंध ने इसके महत्व को फीका कर दिया है। कभी इस गाथा को सुनक बसर लोग जाति-पांति, ऊंच-नीच, अमीर-गरीब के भेदभाव को गले से नीचे नहीं उतरने देते थे। लोरिकायन एक पवांरा काव्य है। आज इस लोकगाथा की विलुप्तता को देखकर लोग चिंतित हैं। भोजपुरी लोक साहित्य की रामायण के नाम से विख्यात लोकगाथा ‘लोरिकायन’ के संबंध में लेखक एवं साहित्यकार डॉ राम अवतार यादव ने बताया कि इस लोकगाथा को पूर्वांचल के कई जिलों में कुछ गायकों द्वारा गाया जाता रहा है। लेकिन उनके न रहने से अब इसको गाने वाला कोई भी लोरिकी गायक नजर नहीं आ रहा है। अब यूट्यूब पर इसे सुना जा सकता है। इसे जीवित रखने की आज सख््त ज़रूरत है। कुछ गायकों को सुनकर उन्होंने इस लोकगाथा का वर्णन कुछ इस प्रकार किया है। लोकगाथा लोरिकायन में वीरता, प्रेम और सतीत्व तीनों गाथाओं का उल्लेख है, जिसमें नायक लोरिक एवं नायिका मंजरी के विवाह की वीरगाथा तथा इन दोनों के मिलन की कथा सती कथात्मक है। इसमें लोरिक-चनवां की कथा ही अधिक प्रचलित हुई है। जिसमें लोरिक के प्रेम चित्रण का ही अधिक वर्णन किया गया है। इस लोकगाथा की कथा को गायक नौ खण्डों में विभाजित कर गाते हैं। आरंभ में लोक के देवी-देवताओं का सुमिरन किया जाता है। उसके उपरांत पहले खंड में लोरिक-मंजरी जन्म, दूसरे खंड में इन दोनों का विवाह, तीसरे खंड में युद्ध, चौथे खंड में संवरू का विवाह, 5वें खंड में चनवां का उढ़ार, 6वें खंड में पिपरीगढ़ की लड़ाई, 7वें खंड में लोरिक - मंजरी मिलन, 8वें खंड में लोरिक पुत्रों की कथा और अंतिम खंड में उद्धार की कथाओं का वर्णन किया गया है। लोरिकायन की घटनाएं क्रमबद्ध रूप से घटती है और कुल मिलाकर एक वीर चरित्र की सृष्टि करती है। कथा का विकास आधार अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन तथा चरित्रों के अलौकिक क्रिया कलाप से होता है। कथा में चित्र प्रदर्शनी, पान-बीड़ी द्वारा प्रदर्शन, योगी रूप धारण, प्रेम मिलन और विवाह में विविध बाधाएं तथा उनका अंत, युद्ध प्रेम,सती परीक्षा, सर्पदंश, नारी अपहरण, मिलन- वियोग, शौर्य प्रदर्शन, पत्नी के साथ बहिन का नाता, समाधि पर फलदार वृक्ष का उगना, मृतक का पुनर्जीवित होना, उड्डयन शील घोड़ा, विश्वसनीय कुत्ता या कुत्तिया, डायन का छल, पक्षी की पीठ पर यात्रा, आकाश-पाताल की यात्रा, अलौकिक जन्म और जादुई क्रिया- कलाप आदि तत्वों की प्रमुखता है। इन्हीं तत्वों के आधार पर कथा जीवित होती है। इस लोककथा से जीवन में संघर्ष की प्रेरणा मिलती है। वीर पुरुष लोरिक दुष्ट तथा दुश्चरित्र राजा मोलागत को पराजित कर सती साहनी नारी मंजरी का उद्धार करता है। इसके बाद मंजरी भी वीर पुरुष लोरिक का पति के रूप में वरण करती है। यह कथा युवा वर्ग के लिए प्रेरक सिद्ध होती है। लोरिक का सबसे प्राचीन उल्लेख जोतिश्वर ठाकुर कृत वर्ण रत्नाकर में हुआ है। इसमें प्राचीन नाट्य शैली में लोरिक नामक लोककाव्य के प्रचलन का पता चलता है। इसकी रचना 14वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में हुई थी। डॉ रामकुमार वर्मा लोरिक का समय राजा भोज का समय बताते हैं। उनका कहना है कि उन्हीं के नाम पर भोजपुर प्रदेश बना। लोरिक अहीर था और उसकी वंशावली राजा भोज से मिलती जुलती थी। लोरिकायन एक पवांरा काव्य है और पवांरो के वंश में राजा भोज हुए थे। वीर पुरुष लोरिक की गाथा बंगाल, बिहार, मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश, के अलावा पूरे भारत वर्ष में गाई जाती है। भारत के अलावा चेकोस्लोवाकिया, नेपाल और यूगोस्लाविया में रहने वाले भारतीय इसे बड़े चाव से गाते हैं। इस गाथा में अहीर, कुर्मी, तेली, कलवार, धोबी, नाई, चमार, कोल, ब्राह्मण, बनिया, कहार तथा आदिवासी जातियों का जातीय एवं साहित्य छिपा है। इस वीरगाथा को जीवंतता प्रदान करने में इन सभी जातियों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है।



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