सैदपुर : डर के मारे तहसील छोड़कर भाग गया था अंग्रेज तहसीलदार, नागरिक के सपने में मां काली ने दिया था प्राचीन मां काली प्रतिमा स्थापना का आदेश
सैदपुर। चैत्र नवरात्र शुरू हो चुका है। नवरात्र अर्थात मां जगदम्बा के नौ रूपों को पूजकर उन्हें जागृत करने का समय। नवरात्रि के साथ ही साल के 12 महीने व सप्ताह के सातों दिन अपनी महत्ता का गुणगान कराते हुए नगर के पुराने बस स्टैंड के पास स्थित अत्यंत प्राचीन मां काली मंदिर जनपद में एक ऐतिहासिक महत्व रखता है। यहां स्थित मां काली के दर्शन हेतु काफी दूर दराज से भक्त आते हैं और आशार्वाद से लाभान्वित होते हैं। मंदिर के स्थापना की कथा भी अत्यंत रोचक होने के साथ ही बड़ी ही विस्मयकारी है। वर्ष 1888 में अंग्रेजों के शासन के दौरान जब सैदपुर तहसील का निर्माण कार्य हो रहा था, इस दौरान वहां काम करने वाले साधो मिस्त्री के पिता वहां रखे कुछ फालतू पत्थरों में से एक बड़ा पत्थर बिना किसी को बताए उठाकर अपने घर ले आए व उसे एक मूर्ति का रूप दे दिया। इधर तहसील में कहीं लगाने के लिए उस पत्थर की खोज होने लगी तो डरकर मिस्त्री के पिता ने उसे रात के समय नगर के पश्चिम बाजार स्थित संगत घाट पर गंगा के किनारे जमीन में गाड़ दिया। इस घटना के काफी समय बीतने के बाद वर्ष 1907 में संगत घाट के पास रहने वाले संस्कृत के प्राध्यापक पंडित रघुनाथ द्विवेदी को रात्रि में स्वप्न के दौरान मां काली ने दर्शन देकर आदेश दिया कि ‘मैं संगत घाट पर स्थित सरकारी जमीन पर बने दीवार से बीस फीट की दूरी पर जमीन के नीचे हूं। मुझे यहां से निकालकर कहीं स्थापित कर दो, मैं पूज्यमान हो जाऊंगी।’ अगले दिन स्वप्न की बात पंडित द्विवेदी ने अपने पिता से कही तो उन्होंने कहा कि ऐसा है तो वहां खुदवा कर देख लो लेकिन पंडित द्विवेदी ने इसे सिर्फ एक वहम मान कर इस घटना को भूल गए। अगली रात उन्हें पुनः यही स्वप्न दिखाई दिया तो उन्होंने स्वप्न के हकीकत का परीक्षण करने के लिए उक्त जगह की खुदाई कराई तो वहां स्वप्न के मुताबिक सचमुच में मां काली की काले रंग की प्रतिमा मिली, जिसे उन्होंने गंगा में स्नान करा कराकर संगत आश्रम के सामने स्थित ठाकुर जी के मंदिर में रखवा दिया। कुछ दिन ऐसे ही बीतने पर एक बार पुनः मां काली ने स्वप्न में पंडित द्विवेदी को स्वप्न में दर्शन देकर आदेश दिया कि मुझे संगत आश्रम से हटाकर तहसील प्रांगण स्थित नीम के पेड़ के नीचे स्थापित करो। इस बार उक्त स्वप्न को सही मान कर उन्होंने बाजार के मोहन बरनवाल के सहयोग से मां काली को वहां स्थापित करने के लिए गए तो तत्कालीन अंग्रेजी हुकूमत के गोरे तहसीलदार ने वहां मूर्ति स्थापित कराने से यह कहते हुए रोक दिया कि यह सरकारी जमीन है, यहां कोई मूर्ति स्थापना नहीं होगी। लेकिन उन्हें आस पास के लोगों ने समझाया कि ऐसे धार्मिक कार्यों को रोकने से आपके घर में क्षति हो सकती है। इसी बीच रामपुर के तत्कालीन जमींदार ठाकुर शिवशंकर सिंह ने नगर की जनता से एकजुट होने का आह्वान किया और सभी लाठी डंडे लेकर तहसील परिसर में पहुंच गए। हजारों लोग को देखकर अंग्रेज तहसीलदार के पसीने निकलने लगे। किसी अनहोनी होने की आशंका से वह वहां से भाग निकला और वहां नगरवासियों ने मां काली की मूर्ति स्थापित की। इसके बाद वहां मंदिर बनवाकर उसकी देखरेख पंडित छोटेलाल मिश्र व्यास के हाथों में दे दी गई। काफी समय बाद उनका देहावसान हो गया। उसके पश्चात उनके बड़े पुत्र सूर्यकांत मिश्र को मंदिर की देखरेख का जिम्मा दे दिया गया। तब से लेकर आज तक मंदिर की व्यवस्था वहीं देख रहे हैं। नवरात्रि के समय में इस ऐतिहासिक मंदिर में काफी दूर दराज से श्रद्धालु आते हैं और मन्नत मांगते हैं। मन्नत पूरी हो जाने पर मंदिर परिसर में घंटा घड़ियाल आदि बांध जाते हैं।