आधुनिकता की दौड़ में पिछड़ गए सोंधी मिट्टी का एहसास कराने वाले बर्तन, मांगलिक रस्मों पर भी स्टील के बर्तनों ने मारी बाजी





जखनियां। आधुनिकता के दौर में मिट्टी के बर्तन तेजी से विलुप्त हो रहे हैं। इन बर्तनों में मेहनताना ज्यादा होने के चलते इनकी कीमत ज्यादा होती है, जिसके चलते लोग खरीदने से हिचकते हैं और इनकी मांग दिनों दिन घटती जा रही है। जिसके कारण अब पेशेवर कुम्हार भी मिट्टी के बर्तन न बनाकर अन्य काम तलाश रहे हैं। इन बर्तनों की खपत कम होने के चलते इनकी लागत तक नहीं निकल पाली। जिसके कारण ये कुटीर उद्योग अब बंद होने के कगार पर आता दिखाई दे रहा है। शादी-विवाह, पूजा-पाठ में मिट्टी के बर्तन की उपयोगिता को आवश्यक समझा जाता था। परंतु अब आधुनिकता के दौर में लोग ऐसे अवसरों पर भी प्लास्टिक व स्टील के बर्तनों से काम चला ले रहे हैं। शादी जैसे मांगलिक अवसरों पर भी मिट्टी के बर्तन की कमी देखी जाती है। बाजारों में भी चाय की दुकानों पर पुरवा यानी मिट्टी का भरुका अब खोजने पर ही देखने को मिलते हैं। वो दुकानदार भी सस्ते पड़ने वाले कागज के डिस्पोजल में चाय देते हैं। शासन द्वारा कुम्हार बिरादरी के लोगों के लिए बर्तन बनाने के नाम पर पोखरी को आवंटित तो कर दिया जाता है लेकिन आवंटित की हुई पोखरी अभिलेखों में ही सिमटी रहती है। भड़ेवर गांव के नंदलाल प्रजापति ने बताया कि आज के युवा मिट्टी के बर्तन नहीं बनाना चाहते हैं।



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