सिधौना : श्रद्धा से किए गए अर्पण से ही पितरों का तर्पण, घाटों पर लोगों ने किया पिंडदान
सिधौना। अर्पण, तर्पण और समर्पण भारतीय संस्कृति के आधारभूत स्तंभ हैं। पितृपक्षीय त्रयोदशी को गंगा गोमती नदियों एवं सरोवरों किनारे लोगों ने अपने पूर्वजों के लिए तर्पण किया। पितृपक्ष आत्म अस्तित्व एवं पुरखों की जड़ों से जुड़ने का दिव्य पाक्षिक महोत्सव है। सनातन संस्कृति में शाश्वत, सार्वभौमिक, समीचीन और सत्य को उजागर करने एवं पूर्वजों के साथ संबंध स्थापित करने में श्राद्ध विधि और तर्पण विधि महत्वपूर्ण माना गया है। पटना में गंगा तट स्थित रामानंद मठ के महंत देवानंद महाराज बताते है कि गंगा के जल में वह तत्व है जो सीधा पितरों के साथ संवाद करा देता है। कौवों को पितरों का प्रतीक माना गया है, क्योंकि पितरों की आत्माएं कौए के रूप में आकर अपने वंशजों से भोजन और पूजा ग्रहण करती हैं। पितृ आत्मा कौए के शरीर में वास कर सकती हैं। कथानुसार इंद्रदेव के कौआ स्वरूप पुत्र जयंत से जब आंख में तिनका चला दिया तो कौए ने श्रीराम से माफी मांगी। भगवान राम ने उसे आशीर्वाद दिया कि पितृपक्ष में कौए को दिया गया भोजन पितरों को मिलेगा। कौवे को होने वाली प्राकृतिक आपदाओं को पूर्वानुमान हो जाता है। पितृपक्ष में गाय, कुत्ता और चींटी को भी भोजन कराने से पितरों को शांति मिलती है। पितृपक्ष में गाय को भोजन कराने से पितरों का आशीर्वाद सदैव बना रहता है। पितृपक्ष में कुत्ते को भोजन कराने से पितरों की आत्मा को संतुष्टि मिलती है।