विलुप्त हो रहे "मुर्गा लड़ाई खेल" को जिंदा रखे हैं पिंटू, 1 लाख तक होती है मुर्गों की कीमत, आक्रामक बनाने के लिए किया जाता है ऐसा



विन्ध्येश्वरी सिंह की खास रिपोर्ट



खानपुर। मानव सभ्यता के उदयकाल से ही मनुष्य मनोरंजन और खेल का सदैव प्रेमी रहा है। जिसके लिए भारत में प्राचीन काल से ही मुर्गों की लड़ाई को खेल और मनोरंजन का प्रमुख साधन बनाया गया था। लेकिन आज के इंटरनेट और मोबाइल के इस युग में विलुप्त हो रहे इस खेल के गिने चुने ही खिलाड़ी ही अब क्षेत्र में बचे है। ऐसे ही एक जनपद के इकलौते मुर्गा लड़ाका खिलाड़ी हैं खानपुर क्षेत्र के नेवादा निवासी अरविन्द सिंह पिंटू। पूर्वांचल सहित उत्तर प्रदेश में दो दर्जन से अधिक इनामी प्रतियोगिताओं में लाखों रुपयों से अधिक का इनाम जीत चुके अरविंद के पास वर्तमान समय में भी कुल 26 लड़ाके मुर्गे हैं जिनकी आज के दौर में भी वो काफी मेहनत और महंगे तरीके से परवरिश करते हैं। अरविंद बताते हैं कि इन दुर्लभ मुर्गों की कीमत 50 हजार से एक लाख रूपए तक होती है और इनकी उम्र 8 से 12 वर्ष तक की है। अरविंद बताते हैं कि पूर्वांचल में मुर्गा लड़ाई का कोई खास सीजन नहीं हैं। यहां के चुनिंदा शहरों में हर तीन महीने पर मुर्गे लड़ाए जाते हैं। जिसमें से ये इलाहाबाद, लखनऊ, वाराणसी, शाहजहांपुर, भदोही, आजमगढ़ आदि जनपदों में मुर्गों के लड़ाई की प्रतियोगिता होती है। बताया कि इनकी लड़ाईयों पर 25 हजार से एक लाख तक के इनाम रखे जाते हैं। कई बार तो दर्शक भी इस प्रतियोगिता में अपना दांव लगाकर पैसे कमाते हैं या गंवाते हैं। पूर्वांचल में यह प्रतियोगिता 60 मिनट यानी एक घंटे की होती है जिसमें से हर 20 मिनट बाद मुर्गे को स्नान के लिए 5 मिनट का अंतराल मिलता है और इसे मुर्गा स्नान कहते हैं। बताया कि लखनऊ, दिल्ली समेत कलकत्ता व हैदराबाद में यही प्रतियोगिता 90 मिनट की होती है। बताया कि प्रदेश सरकार द्वारा लागू वन्यजीव संरक्षण कानून के तहत इन प्रतियोगिताओं का आयोजन बाकायदा प्रशासन की इजाजत से किया जाता है। अरविंद बताते हैं कि बाजार के एक हिस्से में गोल घेरा बनाकर मुर्गों की लड़ाई कराई जाती है जिसे कुकड़ा गली भी कहते हैं। असील प्रजाति का मुर्गा सबसे ख़ास है इस खेल में सबसे ज्यादा असील प्रजाति के मुर्गों को लड़ाया जाता है जिसका वैज्ञानिक नाम है- गेलस डोमेस्टिकस। इस मुर्गे की नजर काफी तेज और टांगे बेहद मजबूत के साथ लंबी भी होती हैं जो लड़ाई में काफी सहायक होती हैं। अरविंद ने बताया कि दुनियाभर में लड़ाका मुर्गों के रूप में प्रसिद्ध असील नस्ल के साथ काला, लाखा, जावा, जंगी नस्ल के लड़ाके मुर्गे उनके पास मौजूद हैं। बताया कि असील नस्ल के मुर्गे लहूलुहान होकर जान दे देते है पर लड़ाई से भागते नही हैं। बताया कि लड़ाके मुर्गों को आक्रामक बनाने के लिए उन्हें घुप्प अंधेरे कमरे में दो दिनों पूर्व से ही बांधकर रखा जाता है जिसके कारण ये मुर्गे खतरनाक हो जाते हैं। इसके अलावा प्रतिदिन आधे घंटे के लिए मुर्गों को तालाब में तैराकी के लिए ले जाया जाता है। लड़ाई के दिन मुर्गे को पांच मिनट ही तैराया जाता है, ताकि लड़ाई के दौरान वे थका महसूस न करें। पशु चिकित्सकों का मानना है कि तैराकी से मुर्गा पैर चलाने में तेज होता है। मुर्गों के खाद्य पदार्थ के बारे में अरविंद ने बताया कि मुर्गों की हाईप्रोटीन डाइट में मक्का के साथ ही शराब में भिगोया बादाम और मुनक्का, काजू के साथ शक्तिवर्धक दवाइयां और मूंगफली के छिलके खिलाए जाते हैं।



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